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मेला व उत्सव

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सार्वभौमिक प्रेम और भाईचारे का प्रतीक

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19वीं शताब्दी की पहली तिमाही में जब भारत में मुगल साम्राज्य अपने आखिरी चरण पर था और देश में ब्रिटिश शासन स्थापित करने के लिए सांप्रदायिक उन्माद को प्रेरित किया जा रहा था, इस जिले के शांंत व छोटे कस्बे ‘देवा’ में एक बच्चे का जन्म हुआ था। जो मानवता के लिए परमात्मा प्रेम को अपनी आत्मा के केन्द्रापन्न प्रतिभा के साथ धर्म और धर्म के मार्ग का मार्गदर्शन करने के लिए प्रेरित कर दिव्य प्रेम को फैलाने के द्वारा एक विशाल जनमानस के जीवन को  प्रभावित करने के लिए नियत था।

देवा के वारिस अली शाह, हुसैनी सय्यदों के एक परिवार से थे, जो धार्मिकता और शिक्षण के लिए प्रतिष्ठित था। उनकी वंशावली बताती है कि वह हज़रत इमाम हुसैन की 26वीं पीढ़ी में पैदा हुये थे। वर्ष 1233ए.एच. से लेकर 1238ए.एच. तक उनकी जन्म तिथि विवादित है। ‘मारिफ वारसिया’ के लेखक ने उनके जन्म की तिथि को 1234ए.एच. रखा है, जो कि ईसाई युग का वर्ष 1809 है। उनके पिता, सय्यद कुर्बान अली शाह एक भूमि-स्वामी वर्ग से थे, और काफी शिक्षित व्यक्ति थे जिन्होंने बगदाद में अपनी शिक्षा पूरी करी थी।

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वारिस अली शाह अभी तीन साल के भी नहीं थे जब उन्होंने अपने माता-पिता को खो दिया था और उनकी परवरिश का बोझ उनकी दादी के कमजोर कंधे पर पड़ गया था। पांच साल की उम्र में उन्होंने ‘कुरान’ सीखना शुरू किया और स्मृति में प्रतिबद्ध कर लिया। वह शायद ही कभी अपनी पुस्तकों को पढ़ते थे, लेकिन अपने शिक्षक को विस्मयित करते हुये वह अपने पाठ को सही ढंग से सुना देते थे। वह पुस्तकों से ज्यादा एकांत को पसंद करते थे और अक्सर एकान्त और चिंतन में लंबा समय बिताने के लिए घर से बाहर दूर निकल जाते थे। वह कभी अपनी उम्र के बच्चों के साथ नहीं खेलते थे, अपितु उन्हें मिठाई देने और गरीबों में पैसे वितरित करने में आनंद लेते थे। जल्द ही उनके आस-पास के लोगों में यह स्पष्ट हो गया कि वह संसारिक प्रवति के नहीं हैं। उनके बहनोई हाजी सैयद खादिम अली शाह, जो लखनऊ में रहते थे, ने उनकी शिक्षा का प्रभार संभाला और उनमें मनोगत विज्ञान के रहस्यों की दीक्षा और आवश्यक प्रशिक्षण दिया।

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जल्द ही हाजी सैयद खादिम अली शाह की मृत्यु हो गई, और चौदह वर्ष की आयु के बच्चे पर उनकी जिम्मेदारियां आ गई। वारिस अली शाह ने अपने पंथ की लोगों में दीक्षा की शुरुआत की और उनके कई शिष्यों थे। जब वह केवल पन्द्रह के थे, तब दिव्य प्रेम की जलती हुई लौ ने उनको मक्का की तीर्थ यात्रा शुरू करने के लिए प्रेरित किया, और उन्होंने अपनी सभी संपत्तियों और एक मूल्यवान पुस्तकालय को अपने संबंधियों को दे दियेे तथा अपनी जायदाद से संबंधित सभी दस्तावेजों को नष्ट कर दिया।

विदेश यात्रायें

12 वर्षों के अन्तराल में उन्होंने अरब, सीरिया, फिलिस्तीन, मेसोपोटामिया, ईरान, तुर्की, रूस और जर्मनी की यात्रायें करी, ऐसा कहा जाता है कि उन्होंने अपनी इन यात्राओं के दौरान 10 बार हज किया था। एक दिन उन्होंने ‘काबा’ के अंदर एक धुन गुनगुना शुरू किया, इस पर ‘काबा’ के संरक्षक ने उन्हें चेतावनी दी और कहा, ‘आप भूल गये हैं कि यह ईश्वर का घर है’। तुरंत उत्तर आया ‘क्या आप मुझे एक ऐसी जगह बता सकते हैं जहां ईश्वर मौजूद नहीं है?’ अपने पहले हज की तारीख से, हाजी वारिस अली शाह ने सिले हुये कपड़े त्याग दिये और ‘एहराम’ (बिना सिला शरीर के चारों ओर लपेटने वाला कपड़ा) पहनना शुरू
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कर दिया। उन्होंने सभी यात्रायें पैदल करी और किसी भी प्रकार का कोई वाहन इस्तेमाल नहीं किया, लेकिन नौकाओं को केवल समुद्र पार करने के लिए प्रयोग किया। उन्होंने सुल्तान अब्दुल माजिद के समय में कॉन्स्टेंटिनोपल का दौरा किया, जो इस पवित्र अजनबी की दृष्टि से बहुत प्रभावित हुआ, और उसने खुद को उनकी दीक्षा के लिये समर्पित किया था। हाजी वारिस अली शाह बर्लिन की यात्रा के दौरान प्रिंस बिस्मार्क के अतिथि थे।

जब वह घर वापस लौटे तो अपने ही लोग उन्हें नहीं पहचाने। उनका पैतृक घर खंडहर हो गया था और जब वह गांव में निकले तो कोई भी उनका स्वागत करने के लिए नहीं आया। उनके कुछ रिश्ते ने उनको पचानने से इन्कार कर दिया, कहीं ऐसा न हो कि वह अपनी संपत्ति पर दावा कर दें, जिसे उन्होंने अपने कब्जे में रखा हुआ था। उन्होंने उनके शीत व्यवहार पर मुस्कुराकर टिप्पणी की, ‘उन्हें लगता है कि मैं अपनी संपत्ति की खातिर वापस आया हूं, जैसे कि मैं उसकी परवाह करता हूं’ और फिर से इधर-उधर भटकने वाली यात्रा पर चले गए।

एक सूफ़ी  सन्त

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सूफीवाद प्रेम पर आधारित है, वे मानते हैं कि यह ब्रह्मांड का अनन्त क्रम है। गुरुत्वाकर्षण के बल द्वारा सभी पदार्थ अदृश्य कणों या परमाणुओं से बने हैं। इस प्राकृतिक घटना का अर्थ सूफीवाद में प्रेम की प्रवृत्ति के रूप में किया गया है। चूंकि ईश्वर ने मनुष्य को अपनी प्रकृति समान बनाया, और मनुष्य को सृष्टि के उच्चतम रूप में सृजित किया, अतः उसे अनिवार्य रूप से उस दिव्य और पूर्ण के साथ आत्मीयता का संबंध रखना चाहिए।

हाजी साहब इतने दिव्य विचारों में लीन होते थे कि वे व्यावहारिक रूप से सभी स्वयं-चेतना खो देते थे। उनके अंर्तमन का झुकाव लंबे समय तक व्याख्यान करने से रोकता था। वह उन संतों में से एक थे, जिनके विचार सर्वशक्तिमान के चिंतन में पूरी तरह से अवशोषित होते हैं और किसी अन्य के लिए कोई स्थान नहीं होता।

असाधारण शक्ति

हाजी वारिस अली शाह ने स्वंय के लिए किसी भी असाधारण शक्तियों का दावा कभी नहीं किया। लेकिन बीमारों के एक नज़र से या स्पर्श मात्र से ही ठीक हो जाने के असंख्य उदाहरण हैं। एक बार बहराइच जाने के लिये, वह बाढ़ के समय घाघरा नदी पार करना चाहते थे, और घाट पर कोई नौका उपलब्ध नहीं थी। उन्होंने अपने साथियों के साथ नदी को तैरकर पार करने का फैसला किया, पर उनके साथी अत्याधिक भय की स्थिति में थे और उनके पीछे जाने के लिए अनिच्छुक थे, लेकिन जब वे अंदर गए, तो उन्हें आश्चर्य हुआ, कि पानी केवल घुटने तक ही गहरा था, और वे सब पैदल चलकर नदी पार हो गये। उनके पैरों में गंदगी के किसी भी संकेत को कभी नहीं देखा गया, हालांकि वह नंगे पैर रहते थे, और न ही कालीन पर उनके पैरों के कोई निशान लगता था जब भी वह कमरे में कदम रखते थे।

प्रभाव

हिंदुओं ने उन्हें उच्चतम आदर दे रखा था, और उन्हें एक आदर्श सूफी और वेदांत का अनुयायी मानते थे। हिंदुओं से उन्होंने कहा ‘ब्रह्मा पर विश्वास करो, मूर्तियों की पूजा न करो और ईमानदार रहो’। विभिन्न पंथों के साधु और फकीरों सहित हजारों हिंदुओं ने उनके प्रति श्रद्धा व्यक्त की और उनके क्रम में सम्मिलित हुये। उन्होंने इन शब्दों से उनका हमेशा स्वागत किया, ‘तुम और मैं एक ही हैं’ उन्होंने हर व्यक्ति में भगवान को पहचाना, क्योंकि उन्होंने स्वंय में ईश्वर का वास महसूस किया था। उन्होंने गैर-मुस्लिमों से अपने धर्म को त्यागने के लिए नहीं कहा, बल्कि उन्हें धर्म को और अधिक उत्साह और ईमानदारी के साथ पालन करने की सलाह दी।

हाजी वारिस अली शाह पुरानी पीढ़ी के लोगों के समान ही अंग्रेजी शिक्षित युवाओं में भी लोकप्रिय थे, अंग्रेजी जानने वाले लोग सैकड़ों की संख्या में आते और उनके चरणों में बैठे रहते। वे पहले सूफी दरवेश थे जो समुद्रों को पार कर यूरोप का दौरा कर चुके थे, और अंग्रेजी जानने वाले वर्ग को भी आकर्षित करने वाले पहले थे। काउंट गलार्ज़ा के नाम से एक स्पेनिश नोबल, स्पेन से यात्रा करके आया और देवा में उनसे मुलाकात की और साक्षात्कार किया।

गुजर जाना

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हाजी वारिस अली शाह, सूफीवाद के क्षेत्र में एक राजा थे, उनका एक संक्षिप्त बीमारी के बाद 7 अप्रैल 1905 ई. को निधन हो गया। उनका मिशन एक आम बैनर के तहत विरोधाभासी पंथों के लोगों को एकत्र करके ईश्वर प्रेम के साथ-साथ ही सार्वभौमिक प्रेम सिखाना था। उनको उसी स्थान पर दफन किया गया जहां उनका देहान्त हुआ था, इसी जगह को उनके कुछ समर्पित अनुयायियों ने उनकी स्मृति में एक भव्य स्मारक का रूप देकर चिह्नित किया।

हाजी वारिस अली शाह का मकबरा सांप्रदायिक सौहार्द का एक स्मारक है, यह वास्तुकला की हिंदू-ईरानी शैलियों के मिश्रण के नमूने पर निर्मित है। मकबरा सांप्रदायिक सद्भाव, सार्वभौमिक भाईचारे और स्नेह का प्रतीक है, जिसे इस संत ने प्रचारित किया था। मकबरा, उसका अंदरूनी हिस्सा और ‘परिक्रमा’ (तवाफ) के लिए आंतरिक तीर्थस्थल को घेरे वाला बाहरी हिस्सा वास्तुकला की हिंदू शैली का संकेत है जबकि टॉवर और मीनार फारसी वास्तुकला पेश करते हैं।

यह उल्लेखनीय है, कि मुस्लिम भक्तों के साथ-साथ हिंदूओं ने भी मकबरे के निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान किया है। इस जिले में रामनगर के राजा उदित नारायण सिंह द्वारा चांदी चढ़ाया गया शिखर दान किया गया था, कश्मीर के शासकों की तरफ से दरवाजे पर चांदी का आवरण किया गया था, और पूरे संगमरमर के फर्श को मणपुरी के ठाकुर पंचाम सिंह द्वारा दान की गई संपत्ति से पूरा किया गया था, और उसी से मेला के दौरान श्रृद्धालुओं के लिये भण्डारा चलाया जाता है। मकबरा खानकाहों की एक कतार से घिरा हुआ है, और इसके सामने एक विशाल गेट है। मकबरे के प्रबंधन और शिष्यों द्वारा दान की जाने वाली संपत्ति का प्रबंधन करने के लिए एक ट्र्स्ट है।

हर साल ‘सफर’ के महीने में मकबरे पर उर्स आयोजित किया जाता है, जिसमें निरन्तर कव्वाली पाठ होता रहता है।

हाजी साहब, हिंदू कैलेंडर के अनुसार ‘कार्तिक’ के महीने में अपने पिता, हाजी कुर्बान अली शाह का उर्स आयोजित करते थे, तब ही संतों की स्मृति में एक बड़े मेले का आयोजन किया जाता है। कृषि कार्यों से छुटकारा पाने के बाद मेले के महीने में उल्लास भरे मनोदशा में दूर-दूर से लोग प्रतिभाग करने आते हैं। देश के सभी हिस्सों से अनुयायी इस महान सूफी संत हाजी वारिस अली शाह और उनके पिता को अपनी श्रद्धा अर्पित करने के लिए आते हैं। पाकिस्तान, अफगानिस्तान और सऊदी अरब के श्रृद्धालू भी यहां के लिये आकर्षित होते हैं और इससे एक सर्वदेशीय एकत्रण होता है।

मेले और प्रदर्शनी के मुख्य आकर्षण

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देश के हर हिस्से से तीर्थयात्रियों और श्रृद्धालुओं को इस महान संत के मकबरे की ओर आकर्षित करने वाला देवा मेला, हाजी वारिस अली शाह और उनके पिता की कब्रों पर चादर प्रस्तुति के समारोह के साथ पूरे जोरों पर आता है। बनारसी सिल्क की कढ़ाई वाली चादरें हाजी साहब और उनके पिता हाजी कुर्बान अली शाह की कब्रों पर चढ़ाई जाती हैं।

ये चादरें एक जुलूस में चांदी की थालियों में ले जाते हैं। जुलूस में पेशेवर गायकों द्वारा रास्ते भर निरंतर कव्वाली और भक्तिपूर्ण गीतों को गाया जाता है, और जुलूस घूमता हुआ मकबरे पहुंचता है। तीर्थयात्री भी चादरों को लिये भक्ति गीत गाते हुये श्रृद्धास्थली की ओर जाते हैं।

देवा मेला किसानों के लिए विषेश रुचि रखता है। एक बड़ा मवेशी बाजार मेले का मुख्य आकर्षण है और राजस्व का मुख्य स्रोत है। पशुओं के बाजार को विभिन्न भागों में विभाजित किया जाता है, इसे प्रत्येक पशु प्रजाति के लिए आरक्षित किया गया है।
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बेहतर कृषि औजारों और सिंचाई के लिए पानी की पम्पिंग के लिए बेहतर इंजनों का प्रदर्शन, किसानों की बड़ी भीड़ को आकर्षित करता है।रसायनिक उर्वरकों का कार्य करने वाली संस्थायें विभिन्न प्रकार के उर्वरकों के उपयोग और प्रभावों को समझाते हुए पैकेट और साहित्य के मुफ्त वितरण की व्यवस्था करते हैं।

कृषि और गन्ना विभागों द्वारा कृषक को बेहतर कृषि रणनीतियों को समझाने के लिये कुछ क्षेत्रीय प्रदर्शनों का भी आयोजन किया जाता है।बेहतर कृषि उपकरण भी प्रदर्शित किये जाते हैं। देवा मेले में एक सजाई हुई प्रदर्शनी सभी की आंखों को लालायित करती हैं, जिसमें विभिन्न विभागों के स्टाल शामिल होते हैं, जिन्हें आंखों को आकर्षित करने वाले तरीके से व्यवस्थित रंगीन प्रदर्शनों के माध्यम से गतिविधियों और उपलब्धियों का चित्रण करा जाता है। जनसंख्या विस्फोट को रोकने के लिए चित्रों, तस्वीरों और मॉडल विधियों के माध्यम से प्रदर्शित किया जाता है। एक अन्य स्टाल में राज्य के सांस्कृतिक जीवन और ऐतिहासिक स्थानों को तथा राष्ट्रीय निर्माण योजनाओं को दिखाने वाले विभिन्न प्रदर्शनों को  रखा जाता है।
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एक सजाये हुये मंडप में मुशायरा, कवि सम्मेलन, संगीत सम्मेलन और वाद-विवाद का आयोजन करके मेले में सांस्कृतिक कार्यक्रमों का अच्छा मिश्रण प्रस्तुत किया जाता है।

हॉकी, वॉलीबॉल और बैडमिंटन टूर्नामेंट के साथ-साथ राइफल शूटिंग और पतंगबाजी की स्पर्धाओं से खेल प्रेमी लोगों को बहुत आन्नद प्राप्त होता है।

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देवा मेला जो कि राज्य में बेहतरीन और साफ-सुथरे मेलों में से एक माना जाता है, जिसकी अपनी पानी आपूर्ति की व्यवस्था है। मेला क्षेत्र के बावजूद और अवधि को बनाए रखने के लिए स्वच्छता एवं संरक्षण सेवा को बनाए रखने में प्रदर्शनी एसोसिएशन हर साल खर्च करते हैं। मेला क्षेत्र में मेले की अवधि में स्वच्छता एवं संरक्षण सेवा को बनाए रखने के लिये, प्रदर्शनी संघ हर साल बड़ी मात्रा में खर्चा करता है। मेला की अवधि में दस दिनों के दौरान उपचार सुविधाओं और प्राथमिक चिकित्सा सेवाएं मुफ्त प्रदान की जाती हैं। एक पूर्ण व्यवस्था को बनाए रखने के लिए कानून व्यवस्था बनाए रखने और यातायात व्यवस्था को नियंत्रित करने के लिए एक पूर्णरूपेण कोतवाली, वायरलेस स्टेशन, वॉकी-टॉकी सेट और केंद्रीय लाउडस्पीकर प्रणाली स्थापित कर वृहत व्यवस्था की जाती है। शाम को मेला दर्शकों के लिए अत्यधिक आकर्षक हो जाता है, क्योंकि मेले की संपूर्ण बस्ती लाखों रंगीन रोशनी से एक परी भूमि में बदल जाती है।

आतिशबाजी का एक शानदार प्रदर्शन से दस दिनों के देवा मेले का समापन होता है। देवा, फतेहपुर, जैदपुर, नवाबगंज और जिला के बाहर के पटाखे निर्माता आकाश में कागज के गुब्बारे जिसके केंद्र में ज्योति प्रज्वलित होती है को उड़ा कर, रॉकेट्स को दागते जिनके केंद्र में लौ जल रही होती है, हवा में बहु-रंगीन गोले की कतार को दागने वाले अग्निबाण चलाते हैं, और तेजी से घूमते पहियों के अंदर गनपाउडर को प्रज्वलित करके खूबसूरत परिदृश्य दर्शाते है जिससे कई रंगों के टिमटिमाते तारों की चिंगारियां निकलती हैं, को दर्शा के अपने कौशल का प्रदर्शन कर एक-दूसरे के साथ प्रतिस्पर्धा करते हैं।

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