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संस्कृति और विरासत

गौरव

राजा बलभद्र सिंह चेहलरी

उन क्रांतिकारियों और स्वतंत्रता सेनानी, जिन्होंने अवध क्षेत्र से आजादी के पहले युद्ध में स्वतंत्रता और स्वशासन के लिए निःस्वार्थ लड़ाई लड़ी, उनमें राजा बलभद्र सिंह चेहलरी का नाम भारतीय स्वतंत्रता के शहीदों के बीच सबसे आगे दिखाई देता है। राजा बलभद्र सिंह चेहलरी 10 जून 1840ई. को पैदा हुए थे, ब्रिटिश सेना से भारतीय आजादी के पहले युद्ध की आखिरी लड़ाई जो ओबरी में बाराबंकी से लगभग 2 किलोमीटर दूर रेट और जमुरिया नदियों के संंगम पर स्थित है, में बहादुरी से लड़े और लगभग 1000 अन्य क्रांतिकारियों के साथ अपना जीवन बलिदान किया।
राजा-चेहलरी
एक ब्रिटिश ब्रिगेडियर सर होप ग्रांट राजा बलभद्र सिंह चेहलरी की बहादुरी और अनुकरणीय साहस से बहुत प्रभावित हुए और अपने संस्मरण “सिपाही युद्ध की घटनायें” में लिखा है, कि “उनके हमले बहुत क्रूर थे, हालांकि वे अप्रभावी सिद्ध हुए, परंतु हमें उनको रोकने के लिये बहुत कठिन लड़ाई लड़ना पड़ी।

राजा बलभद्र सिंह चेहलरी एक घोड़े पर सवार हो दोनों हाथों में तलवारें लेकर लड़े, यह दृष्य ब्रिटिश सेनाओं के लिए बहुत भयावह था। अतः यह आश्चर्य की बात नहीं है कि ब्रिगेडियर अपने पूरे जीवन ऐसे अनुकरणीय साहस को नहीं भूल सका।

के.डी.सिंह ‘बाबू’

के.डी.सिंह ‘बाबू’ के नाम से लोकप्रिय कुंवर दिग्विजय सिंह का जन्म 2 फरवरी 1922ई. को बाराबंकी में हुआ था। उनके पिता राय बहादुर ठाकुर श्री रघुनाथ सिंह शहर के एक प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता, काबिल वकील और टेनिस खिलाड़ी थे। के.डी.सिंह ‘बाबू’ ने बचपन से ही अपने व्यक्तित्व और कर्मों से लोगों को प्रभावित करना शुरू कर दिया था। इस प्रकार उन्होंने अपने सामाजिक और छात्र जीवन के दौरान ही समाज में बहुत आदर और सम्मान प्राप्त होना शुरू हो गया। उन्होंने पढ़ाई में उत्कृष्ट प्रदर्शन किया जैसे कि खेलकूद। हॉकी में, वह उस उत्कृष्टता की ओर बढ़े, कि वह खेल का पर्याय बन गये, और हॉकी फील्ड पर एक जादूगर साबित हुये।
के.डी.सिंह-बाबू
‘बाबू’ ने देवा मेले के हॉकी टूर्नामेंट से अपने खेल कैरियर को शुरू किया। 1938 में उन्होंने दिल्ली में एक टूर्नामेंट में भाग लिया, जहां उन्होंने मोहम्मद हुसैन तत्कालीन बहुत ही प्रसिद्ध हॉकी ओलंपियन को चकमा दिया और कई गोल किए, जिससे समाचार पत्रों में बहुत सारा कवरेज प्राप्त हुआ। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद वह 1946 में भारतीय हॉकी टीम के सदस्य के रूप में श्रीलंका (तत्कालीन सीलोन) गये। 1947 में, उन्होंने ब्रिटिश पूर्व अफ्रीका (केन्या), यूगांडा, तंजानिया का दौरा एक अन्य महान हॉकी उस्ताद ध्यानचंद के नेतृत्व वाली भारतीय हॉकी टीम के साथ किया। इस टूर्नामेंट में, टीम ने 200 गोल किये जिसमें के.डी.सिंह ‘बाबू’ ने 70 किये, जो टीम में किसी भी खिलाड़ी द्वारा सबसे ज्यादा।

1948 में, उन्हें पहली बार ओलंपिक के लिए भारतीय हॉकी टीम में चुना गया था, जिसमें किशनलाल कप्तान और ‘बाबू’ उपकप्तान थे। भारत ने एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में अपना पहला ओलंपिक हॉकी का सोने का पदक जीता। उन्हें 1949 में भारतीय टीम का कप्तान बनाया गया, उस साल 236 गोल में से 99 गोल उन्होंने किए, टीम के किसी भी सदस्य द्वारा अधिकतम।

उन्हें 1952 हेलसिंकी ओलंपिक खेलों के लिए भारतीय ओलंपिक हॉकी टीम का कप्तान बनाया गया था, जहां उनकी कप्तानी में टीम ने एक और ओलंपिक हॉकी स्वर्ण पदक जीता था। इसके बाद, उन्होंने हॉकी के खेल को अन्य रूपों में अपनी सेवायें जारी रखी। 1960 में, उन्हें पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया गया, इस प्रकार पद्मश्री प्राप्त करने वाले वह प्रथम हॉकी खिलाड़ी बने। 1972 में भारतीय हॉकी महासंघ द्वारा 1972 के म्यूनिख ओलंपिक के लिए उन्हें भारतीय हॉकी टीम का कोच बनाया गया था। लेकिन, अफसोस कि 27 मार्च 1978 को, के.डी.सिंह ‘बाबू’, राष्ट्र के गौरव ने आत्महत्या कर ली, इस प्रकार मानसिक तनाव के कारण हताश होकर अपना जीवन समाप्त कर लिया, और लाखों देशवासियों को रोता बिलखता हुआ पीछे छोड़ गये।

फ्लाईट लेफ. शंकर दयाल बाजपई

प्राचीन काल से बाराबंकी को बहादुर पुत्रों को उत्पन्न करने का गौरव व सौभाग्य प्राप्त है। इस पवित्र मिट्टी के कई बेटों ने राष्ट्र की सीमाओं की रक्षा के लिए शहादत को गले लगाया है। फ्लाईट लेफ. शंकर दयाल बाजपेयी का नाम बाराबंकी के उन वीर बेटों के बीच से सामने आता है, जिन्होंने देश की सीमाओं पर सतर्कता रखते समय अपना जीवन बलिदान किया था।
एस.के.बाजपाई
वह 25 जनवरी 1960 को जिला बाराबंकी में सतारीख के गांव शरिफाबाद में पंडित श्यामलाल बाजपेई के परिवार में पैदा हुए थे। 1980 में उन्होंने भारतीय वायु सेना में शामिल हुये और 1982 में एक कमीशनड अधिकारी बने। फिर उन्होंने एक विशेषज्ञ लड़ाकू पायलट बनने के लिए प्रशिक्षण प्राप्त किया, और कई अतिरिक्त प्रशिक्षण और पाठ्यक्रमों के बाद, उन्हें उस अवधि का एक बहुत परिष्कृत और नवीनतम उड़ने वाली मशीन जगुआर सेनानी विमान उड़ाने के लिए सौंपा गया।

फ्लाईट लेफ.एस.डी.बाजपेयी गुजरात में नालिया के अत्यधिक संवेदनशील भारत-पाक सीमावर्ती पोस्ट पर तैनात किया गया था, जहां 24 घंटे मिग, मिराज और जगुआर सेनानी विमानों द्वारा हवाई चौकसी बनाए रखी जाती है।

10 दिसम्बर 1987 को शाम लगभग 7:35 बजे शंकर दयाल बाजपेई दैनिक हवाई चौकसी के लिये जगुआर से उड़ान भरी। उन्हें सीमा पर पड़ोसी देश की सैन्य गतिविधियों पर नज़र रखना और सुरक्षा बनाए रखना था। कुछ ही मिनटों में पूरी तरह से गोला-बारूद से भरा हुआ उनके जगुआर 20,000 फीट की ऊंचाई पर था। नालिया के वायुसेना नियंत्रण कक्ष में उनके जगुआर से सिग्नल मिल रहे थे, लेकिन अचानक रडार की स्क्रीन पर 7:40 बजे एक बड़ी लौ दिखायी पड़ी, और सब कुछ सिर्फ 2 सेकेंड में राख हो गया। फ्लाईट लेफ. शंकर दयाल बाजपेयी नहीं रहे, दुर्भाग्यवश एक उज्ज्वल सितारा बुझ गया। भारत का एक महान और वीर पुत्र।

साहित्यिक

साहित्यिक-लेख

संत कवि बैजनाथ

बाबा के नाम से लोकप्रिय, वह हिंदी साहित्य में पूरे देश का गौरव थे, न कि केवल बारबंकी के। उनकी रचनात्मकता और व्यक्तित्व बहुमुखी थे, लेकिन वे लोकप्रियता और सम्मान का प्रकाश नहीं देख पाए, क्योंकि उनको समय पर सार्वजनिक नहीं किया जा सका और कुछ आज भी अनपेक्षित बचे हुए हैं।
बाबा-बैजनाथ-मूर्ति
बाबा-बैजनाथ-फोटो
संत कवि बैजनाथ रामकथा साहित्य के एक प्रसिद्ध भाषाविद् थे। उनका जन्म 1890 सम्वत के अश्विन पूर्णिमा को जिला बाराबंकी के गांव देहवा में हुआ था। उनके पिता हीरानंद मानापुर देहवा के एक आर्थिक रूप सशक्त जमीनदार थे। फकीर राम उनके गुरु थे। संत कवि बैजनाथ की पहली साहित्यिक रचना जो प्रकाश में आई, वह 1932 सम्वत में  ‘गीतावली की टीका’ थी। फिर उनका काव्य संग्रह ‘कल्पडरूम’ नाम से प्रकाशित हुआ था। समय गुजरने के साथ, उनकी कई साहित्यिक रचनाएं प्रकाश में आती रहीं। 1954 में बैसाख शुक्ल की 7वीं तिथि को शाम 4 बजे  उन्होंने अपने नश्वर अवशेष को छोड़ दिया।

संत कवि चतुर्भुज दास

संत कवि चतुर्भुज दास, निर्गुण भक्ति धारा की ज्ञानश्रेई शाखा से संबंधित थे, उन्होंने रामपुर जहांगीराबाद को अपनी साहित्यिक साधना भूमि बनाया। वह गोस्वामी तुलसीदास के युग के थे। उन्होंने निर्गुण सागर, हरि चरित्र कथा, राम चरित्र, राम बावनी, राम विरहणी लिखकर निर्गुण ब्रह्म के संदेश को फैलाया।

संत कवि जगजीवन दास

घाघरा के तट पर एक गांव है जो सरदहा के नाम में जाना जाता है, यहां 1727 में संत कवि जगजीवन दास का जन्म हुआ, जो सतनामी पंथ के प्रचालक थे। उन्होंने कोटवा को अपना आध्यात्मिक और साहित्यिक जन्म स्थान और साधना स्थली बनाया। एक परिवारिक जीवन गुजारते हुये भी संत कवि जगजीवन दास एक महान संत और साहित्यिक प्रतिभा साबित हुए। उनके श्रेय में एक दर्जन से ज्यादा साहित्यिक रचनाएं हैं, जिन्होंने हिंदी साहित्य की विरासत को समृद्ध किया है। आग विनाश, महाप्रलय, ज्ञानप्रकाश, शब्द-सागर, परम ग्रन्थ, प्रेम-पथ, आगम पद्धति, उनकी महत्वपूर्ण रचनाएं हैं।
बाबा-जगजीवन-दास
उनकी गुरू-शिष्य परंपरा में, बोधे दास, दूलन दास, देवी दास, नवल दास, आहलाद दास, भिखा दास इत्यादि उनके लोकप्रिय शिष्य थे जो आगे चल कर स्वंय प्रसिद्ध साहित्यिक और आध्यात्मिक व्यक्तित्व  हुये थे।

दरियाबाद हिंदी और उर्दू / फारसी साहित्य दोनों ही में साहित्यिक रचनाओं का एक महत्वपूर्ण स्थान रहा है।

कासिम शाह

अमानुल्ला के पुत्र कसीम शाह 1731ई. में पैदा हुये थे, उन्होंने सूफीवादी कविता की साहित्यिक परंपरा को आगे बढ़ाया था। उन्होंने हंस-जवाहिर, हंस की प्रेम कहानी, जो बल्ख-बुखारा के सुल्तान बुधान शाह के बेटे हंस और चीन के अलमशाह की बेटी जवाहिर की प्रेम कथा का एक बहुत दिलचस्प ब्योरा दिया है।

रवि दत्त मिश्र

गरीब धन की प्रसिद्धि वाले दरियाबाद के रवि दत्त मिश्र का जन्म 1769ई. में हुआ था। वह एक महान विद्वान, ज्योतिषी, लेखक और एक काबिल व्यक्तित्व वाले थे। उन्होंने कई पुस्तकें लिखीं, इनमें बसंत राज, धनुर्वेद, मत चिंतामणी दुर्गा महोत्सव, मुहूर्त प्रकाश लोगों में प्रसिद्ध हैं।

शंकर दयाल अवस्थी

दरियाबाद से ही शंकर दयाल अवस्थी ने शिवसिया ब्रतबोध, शंकर प्रमोद, संक्षिप्त संक्षेप रामायण आदि लिखा।

पंडित महेश दत्त शुक्ल

धनौली के पंडित महेश दत्त शुक्ल का जन्म 1840ई. में हुआ था। वह हिंदी और संस्कृत दोनों के एक महान विद्वान थे। उनकी अन्य प्रमुख साहित्यिक रचनाओं में काव्य  संग्रह, कवित रामायण, माधव निदान, उमापति दिग्विजय, आकार कोष टीका, विष्णु पुराण देवी भागवत, पद्यम पुराण, नर्सिंग पुराण शामिल हैं। उनके पुत्र, हिरण्य दत्त शुक्ल भी एक अच्छे कवि थे। उन्होंने कृष्ण कथाकर, संस्कृत व्याकरणाभाम लिखे।

गुरु प्रसाद सिंह ‘मृगेश’

राम नगर ने भी हिंदी साहित्य के क्षेत्र में प्रतिष्ठा अर्जित की है। बुढ़वल के गुरु प्रसाद सिंह ‘मृगेश’ (1910) ने  ‘परिजात’ पर लोक कविता लिखी है। उनके प्रमुख साहित्यिक लेखन में  माधव मंगला, वरवे व्यंजना दयादंड, मृगेश महाभारत आदि जैसी किताबें शामिल हैं।

शिव सिंह सरोज

हढ़ेहा गांव के निकट हढ़ियामऊ के शिव सिंह सरोज ने भी अपनी हिंदी साहित्यिक रचनाओं से बहुत सारी ख्याति अर्जित की। उन्होंने लक्ष्मण महाकाव्य, तुलसीदास, अमर भारती जप, विपलव और विहार, लवकुश, रक्त  रन्जित कश्मीर जैसी पुस्तकों के लेखन द्वारा हिंदी साहित्य को समृद्ध किया।

19वीं शताब्दी में अरबी, उर्दू और फारसी साहित्य के क्षेत्र में जिले की विरासत को समृद्ध करने वाले प्रमुख व्यक्तियों में शामिल हैं:

किन्तूर के सैय्यद कुली खान, देवा के मौलाना बुरहानुद्दीन, दरियाबाद के मुफ्ती मजहर करीम, हकीम नूर करीम, सैय्यद अजीज हुसैन, सैय्यद हामिद हुसैन, सैय्यद गुलाम हुसैन, सैय्यद करामत हुसैन

20 वीं शताब्दी में, प्रमुख उर्दू लेखक और कवियों में, देवा के इब्राहीम बेग, फतेहपुर के मेंहदी अली नासिरी, मसौली के शेख विलायत अली ‘बाम्बे’ थे, गदिया के सज्जाद अली अंसारी गद्य लेखन के लिये प्रसिद्ध, बशारत अली ‘नदीम’ जाने माने कवि थे, और उनके शिष्य माता प्रसाद ‘सागर’, मुर्तुजा बेग ‘फरहत’ भी अपने आप में जाने माने उर्दू और फारसी के कवि थे। दरियाबाद के खुदा बक्श शेख ने उर्दू और फारसी में भी कविता लिखी है, उनकी किताब ‘तोहमत-उल-असफिया’ हाजी सैयद वारिस अली शाह की जीवनी है। शंकर लाल ‘कमाल’, महादेवी बली ‘इकबाल’, नजफ अली बेग ‘नजफ’, नालिम अली ‘नाजिम’ भी उर्दू के प्रसिद्ध कवियों में जाने जाते थे।