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इतिहास

जिला के नाम की उत्पत्ति

बाराबंकी जिले को ‘पूर्वांचल के प्रवेश द्वार’ के रूप में भी जाना जाता है, जिसे कई संतों और साधुओं की तपस्या स्थली होने का गौरव प्राप्त है।इस जिले के नामकरण की कई प्राचीन कथाएं प्रचलित हैं। उनमें सबसे लोकप्रिय प्रचलन यह है कि, ‘भगवान बारह’ के पुनर्जन्म की पावन भूमि है। इस जगह को ‘बानह्न्या’ के रूप में जाना जाने लगा, जो समय के साथ दूषित होकर बाराबंकी हो गया। जिला का मुख्यालय दरियाबाद में 1858 ई. तक था, जिसे बाद में 1859 ई. में नवाबगंज में स्थानांतरित कर दिया गया था, जो बाराबंकी का दूसरा लोकप्रिय नाम भी है।

जैसा कि मान्यता है, प्राचीन समय में यह जिला सूर्यवंशी राजाओं द्वारा शासित राज्य का हिस्सा था, जिसकी राजधानी अयोध्या थी। राजा दशरथ और उनके प्रसिद्ध पुत्र, भगवान राम इस वंश के थे। गुरु वशिष्ठ उनके कुलगुरू थे, और उन्होंने ‘सतरिख’ में राजवंश के युवा राजकुमारों को उपदेश एवं शिक्षा दी, इसे शुरू में ‘सप्तऋषि’ के नाम से जाना जाता था।

यह जिला चंद्रवंशी राजाओं के शासनकाल में बहुत लंबे समय तक रहा था। महाभारत युग के दौरान, यह ‘गौरव राज्य’ का हिस्सा था और भूमि के इस हिस्से को कुरुक्षेत्र नाम से जाना जाता था। पांडव ने अपनी मां कुंती के साथ, अपने राज्य निर्वासन का कुछ समय घाघरा नदी के तट पर व्यतीत किया था।

‘पारिजात’ विश्व का अद्वितीय वृक्ष, ‘कुन्तेश्वर महादेव मंदिर’, और उसका अत्यंत प्राचीन शिवलिंग, घाघरा के पावन तट पर कुन्तेश्वर (किंतूर), बाजार धरम मंडी (धमेडी), प्रसिद्ध लोधेश्र्वर महादेव का शिवलिंग इत्यादि, सबूत है, कि यह क्षेत्र महाभारत काल के दौरान भी, पांच हजार साल पहले एक महत्वपूर्ण स्थान था।

उपलब्ध ऐतिहासिक दस्तावेजों के अनुसार, 1030 ई. में इस क्षेत्र पर महमूद ग़ज़नी के भाई सय्यद सालार मसूद ने हमला किया था। उसी शताब्दी में मदीना के कुतुबुद्दीन गाहा ने हिंदू रियासतों पर कब्जा किया, जिससे मुस्लिम प्रभुत्व स्थापित हो गया। महान मुगल सम्राट अकबर के शासनकाल में इस जिले को अवध और मानिकपुर की सरकारों के अधीन विभाजित किया गया था।

कई राजाओं और राजकुमारों ने अंग्रेजों के शासन का इस जिले में विस्तार के विरोध में अंग्रेजों से कई युद्ध किये। ब्रिटिश राज के दौरान, कई राजा अपनी आजादी के लिए लड़े और ऐसा करते हुए इन महान क्रांतिकारियों ने अपना बलिदान दिया। राजा बलभद्र सिंह चहलारी ने लगभग 1000 क्रांतिकारियों के साथ ब्रिटिश शासन से स्वतंत्रता के लिए अपना जीवन बलिदान किया। भारतीय स्वतंत्रता के पहले युद्ध की आखिरी लड़ाई दिसंबर 1858 ई. में इस जिले में हुई थी।

मध्य उन्नीसवीं सदी के दौरान क्रांतिकारियों का अंतिम मोर्चा ‘भिटौली’ में था, जो मजबूत ब्रिटिश सेनाओं के समक्ष असफल साबित हुआ। भिटौली मोर्चा पीछे छोड़कर आजादी के कट्टरपंथियों ने बेगम हजरत महल,  नाना साहब के संग स्वतंत्रता संग्राम जारी रखने के लिए नेपाल के क्षेत्र में प्रवेश किया।

1921 ई. में गांधीजी ने असहयोग आंदोलन शुरू किया, जिससे एक बार फिर आजादी की लौ को प्रज्वलित किया गया। यहां भी, जिले ने अग्रणी पहल करते हुए प्रिंस ऑफ वेल्स के भारत आगमन का विरोध किया। फलस्वरूप, विरोध प्रदर्शन आयोजित किए गए और सरकारी हाई स्कूल, नवाबगंज पर बड़ी संख्या में स्वतंत्रता सेनानियों की गिरफ्तारी हुई थी।  श्री रफी अहमद किदवई भी गिरफ्तार हुये थे। 1922 ई. में खिलाफत आंदोलन, 1930 ई. नमक आंदोलन, और 1942 ई. के भारत छोड़ो आंदोलन में इस जिले के लोगों ने सक्रिय रूप से भाग लिया, जिससे ब्रिटिश राज की रातों की नींद हराम हो गई। जिसके फलस्वरूप जिला कांग्रेस कार्यालय को सील कर दिया गया। परन्तु, स्थानीय नेताओं ने भूमिगत रहते हुये अपना विरोध जारी रखा। क्रांतिकारियों द्वारा विरोध प्रगट करने के लिये 24 अगस्त 1942 ई. को हैदरगढ़ डाकघर का लूट लिया गया था। इसी तरह की अन्य घटनाएं जीपीओ बाराबंकी और सतरिख में भी हुईं।

सत्याग्रह के आह्वान पर इस जिले के लोगों ने उत्साहपूर्वक भाग लिया और बड़ी संख्या में गिरफ्तारियां दीं। अंततः 15 अगस्त 1947 ई. को देश ने अपनी लंबे समय से प्रतीक्षित स्वतंत्रता प्राप्त की। बाराबंकी के हर घर में, देश के बाकी हिस्सों की तरह ही, इस अवसर को महान उत्साह के साथ मनाया।

एक प्रशासकीय संस्था के रूप में जिला

जिला बाराबंकी को दारियाबाद के नाम से जाना जाता था, जिसका मुख्यालय दारियाबाद शहर था,  जिसे मोहम्मद शाह शारिकी की सेना के एक अधिकारी दरिआब खां द्वारा स्थापित किया गया था। यह 1858 ई.  तक जिला मुख्यालय बना रहा। 1859 ई. में जिला मुख्यालय को नवाबगंज में स्थानांतरित कर दिया गया था जिसे अब बाराबंकी कहा जाता है।जिले के विस्तार के लिये अंग्रेजों द्वारा, तब दरियाबाद जिले में कुर्सी को जिला लखनऊ और हैदरगढ़ को जिला रायबरेली से जोड़ा गया था।